History of INDIA भारत का इतिहास
भारत का प्राचीन इतिहास :
भारत का इतिहास और संस्कृति गतिशील है और यह मानव सभ्यता की शुरूआत तक जाती है। यह सिंधु घाटी की रहस्यमयी संस्कृति से शुरू होती है और भारत के दक्षिणी इलाकों में किसान समुदाय तक जाती है। भारत के इतिहास में भारत के आस पास स्थित अनेक संस्कृतियों से लोगों का निरंतर समेकन होता रहा है। उपलब्ध साक्ष्य सुझाते हैं कि लोहे, तांबे और अन्य धातुओं के उपयोग काफी शुरूआती समय में भी भारतीय उप महाद्वीप में प्रचलित थे, जो दुनिया के इस हिस्से द्वारा की गई प्रगति का संकेत है। चौंथी सहस्राब्दि बी. सी. के अंत तक भारत एक अत्यंत विकसित सभ्यता के क्षेत्र के रूप में उभर चुका था।
१.
सिंधु घाटी की सभ्यता ( Sindhu ghati ki Sabhyta)
:-
भारत का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता के जन्म के साथ आरंभ हुआ, और अधिक बारीकी से कहा जाए तो हड़प्पा सभ्यता के समय इसकी शुरूआत मानी जाती है। यह दक्षिण एशिया के पश्चिमी हिस्से में लगभग 2500 बीसी में फली फूली, जिसे आज पाकिस्तान और पश्चिमी भारत कहा जाता है। सिंधु घाटी मिश्र, मेसोपोटामिया, भारत और चीन की चार प्राचीन शहरी सबसे बड़ी सभ्यताओं का घर थी। इस सभ्यता के बारे में 1920 तक कुछ भी ज्ञात नहीं था, जब भारतीय पुरातात्विक विभाग ने सिंधु घाटी की खुदाई का कार्य आरंभ किया, जिसमें दो पुराने शहरों अर्थात मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष निकल कर आए। भवनों के टूटे हुए हिस्से और अन्य वस्तुएं जैसे कि घरेलू सामान, युद्ध के हथियार, सोने और चांदी के आभूषण, मुहर, खिलौने, बर्तन आदि दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र में लगभग पांच हजार साल पहले एक अत्यंत उच्च विकसित सभ्यता फली फूली।
सिंधु घाटी की सभ्यता मूलत: एक शहरी सभ्यता थी और यहां रहने वाले लोग एक सुयोजनाबद्ध और सुनिर्मित कस्बों में रहा करते थे, जो व्यापार के केन्द्र भी थे। मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष दर्शाते हैं कि ये भव्य व्यापारिक शहर वैज्ञानिक दृष्टि से बनाए गए थे और इनकी देखभाल अच्छी तरह की जाती थी। यहां चौड़ी सड़कें और एक सुविकसित निकास प्रणाली थी। घर पकाई गई ईंटों से बने होते थे और इनमें दो या दो से अधिक मंजिलें होती थी।
उच्च विकसित सभ्यता हड़प्पा में अनाज, गेहूं और जौ उगाने की कला ज्ञात थी, जिससे वे अपना मोटा भोजन तैयार करते थे। उन्होंने सब्जियों और फल तथा मांस, सुअर और अण्डे का सेवन भी किया। साक्ष्य सुझाव देते हैं कि ये ऊनी तथा सूती कपड़े पहनते थे। वर्ष 1500 से बी सी तक हड़प्पन सभ्यता का अंत हो गया। सिंधु घाटी की सभ्यता के नष्ट हो जाने के प्रति प्रचलित अनेक कारणों में शामिल है, लगातार बाढ़ और अन्य प्राकृतिक विपदाओं का आना जैसे कि भूकंप आदि।
यह सभ्यता मुख्यतः 2500 ई.पू. से 1800 ई. पू. तक रही। ऐसा आभास होता है कि यह सभ्य्ता अपने अंतिम चरण में ह्वासोन्मुख थी। इस समय मकानों में पुरानी ईंटों के प्रयोग की जानकारी मिलती है। इसके विनाश के कारणों पर विद्वान एकमत नहीं हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे विभिन्न तर्क दिये जाते हैं जैसे: बर्बर आक्रमण, जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असंतुलन, बाढ तथा भू-तात्विक परिवर्तन, महामारी, आर्थिक कारण। ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोइ एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ। जो अलग अलग समय में या एक साथ होने कि सम्भावना है। मोहेन्जो दरो मे नगर और जल निकास कि वय्व्वस्था से महामरी कि सम्भावन कम लगति है। भिशन अग्निकान्द के भि प्रमान प्राप्त हुए है। मोहेन्जोदरो के एक कमरे से १४ नर कन्काल मिले है जो आक्रमन, आगजनि, महामारी के संकेत है।
२.
प्राचीन भारत के इतिहास में वैदिक सभ्यता सबसे प्रारंभिक सभ्यता है। इसका नामकरण हिन्दुओं के प्रारम्भिक साहित्य वेदों के नाम पर किया गया है। वैदिक सभ्यता सरस्वती नदी के किनारे के क्षेत्र जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब और हरियाणा राज्य आते हैं, में विकसित हुई। वैदिक हिन्दुओं का पर्यायवाची है, यह वेदों से निकले धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों का दूसरा नाम है।
इस अवधि के दो महान ग्रंथ रामायण और महाभारत थे।
वैदिक काल प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक काल खंड है. उस दौरान वेदों की रचना हुई थी. हड़प्पा संस्कृति के पतन के बाद भारत में एक नई सभ्यता का आविर्भाव हुआ. इस सभ्यता की जानकारी के स्रोत वेदों के आधार पर इसे वैदिक सभ्यता का नाम दिया गया.
(3) आर्यों द्वारा विकसित सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी.
(1) वैदिक काल का विभाजन दो भागों ऋग्वैदिक काल- 1500-1000 ई. पू. और उत्तर वैदिक काल- 1000-600 ई. पू. में किया गया है.
(2) आर्य सर्वप्रथम पंजाब और अफगानिस्तान में बसे थे. मैक्समूलर ने आर्यों का निवास स्थान मध्य एशिया को माना है. आर्यों द्वारा निर्मित सभ्यता ही वैदिक सभ्यता कहलाई है.(3) आर्यों द्वारा विकसित सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी.
(4) आर्यों की भाषा संस्कृत थी.
(5) आर्यों की प्रशासनिक इकाई इन पांच भागों में बंटी थी: (i) कुल (ii) ग्राम (iii) विश (iv) जन (iv) राष्ट्र.
(6) वैदिक काल में राजतंत्रात्मक प्रणाली प्रचलित थी.
(7) ग्राम के मुखिया ग्रामीणी और विश का प्रधान विशपति कहलाता था. जन के शासक को राजन कहा जाता था. राज्याधिकारियों में पुरोहित और सेनानी प्रमुख थे.
(8) शासन का प्रमुख राजा होता था. राजा वंशानुगत तो होता था लेकिन जनता उसे हटा सकती थी. वह क्षेत्र विशेष का नहीं बल्कि जन विशेष का प्रधान होता था.
(9) राजा युद्ध का नेतृत्वकर्ता था. उसे कर वसूलने का अधिकार नहीं था. जनता अपनी इच्छा से जो देती थी, राजा उसी से खर्च चलाता था.
(10) राजा का प्रशासनिक सहयोग पुरोहित और सेनानी 12 रत्निन करते थे. चारागाह के प्रधान को वाज्रपति और लड़ाकू दलों के प्रधान को ग्रामिणी कहा जाता था.
(11) 12 रत्निन इस प्रकार थे: पुरोहित- राजा का प्रमुख परामर्शदाता, सेनानी- सेना का प्रमुख, ग्रामीण- ग्राम का सैनिक पदाधिकारी, महिषी- राजा की पत्नी, सूत- राजा का सारथी, क्षत्रि- प्रतिहार, संग्रहित- कोषाध्यक्ष, भागदुध- कर एकत्र करने वाला अधिकारी, अक्षवाप- लेखाधिकारी, गोविकृत- वन का अधिकारी, पालागल- राजा का मित्र.
(12) पुरूप, दुर्गपति और स्पर्श, जनता की गतिविधियों को देखने वाले गुप्तचर होते थे.
(13) वाजपति-गोचर भूमि का अधिकारी होता था.
(14) उग्र-अपराधियों को पकड़ने का कार्य करता था.
(15) सभा और समिति राजा को सलाह देने वाली संस्था थी.
(16) सभा श्रेष्ठ और संभ्रात लोगों की संस्था थी, जबकि समिति सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी और विदथ सबसे प्राचीन संस्था थी. ऋग्वेद में सबसे ज्यादा विदथ का 122 बार जिक्र हुआ है.
(17) विदथ में स्त्री और पुरूष दोनों सम्मलित होते थे. नववधुओं का स्वागत, धार्मिक अनुष्ठान जैसे सामाजिक कार्य विदथ में होते थे.
(18) अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है. समिति का महत्वपूर्ण कार्य राजा का चुनाव करना था. समिति का प्रधान ईशान या पति कहलाता था.
(19) अलग-अलग क्षेत्रों के अलग-अलग विशेषज्ञ थे. होत्री- ऋग्वेद का पाठ करने वाला, उदगात्री- सामवेद की रिचाओं का गान करने वाला, अध्वर्यु- यजुर्वेद का पाठ करने वाला और रिवींध- संपूर्ण यज्ञों की देख-रेख करने वाला.
(20) युद्ध में कबीले का नेतृत्व राजा करता था, युद्ध के गविष्ठ शब्द का इस्तेमाल किया जाता था जिसका अर्थ होता है गायों की खोज.
(21) दसराज्ञ युद्ध का उल्लेख ऋग्वेद के सातवें मंडल में है, यह युद्ध रावी नदी के तट पर सुदास और दस जनों के बीच लड़ा गया था. जिसमें सुदास जीते थे.
(22) ऋग्वैदिक समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में विभाजित था. यह विभाजन व्यवसाय पर आधारित था. ऋग्वेद के 10वें मंडल में कहा गया है कि ब्राह्मण परम पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उनकी भुजाओं से, वैश्य उनकी जांघों से और शुद्र उनके पैरों से उत्पन्न हुए हैं.
प्रमुख दर्शन एवं उसके प्रवर्तक
(25) आर्यों का समाज पितृप्रधान था. समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार थी जिसका मुखिया पिता होता था जिसे कुलप कहते थे.
(26) महिलाएं इस काल में अपने पति के साथ यज्ञ कार्य में भाग लेती थीं.
(27) बाल विवाह और पर्दाप्रथा का प्रचलन इस काल में नहीं था.
(28) विधवा अपने पति के छोटे भाई से विवाह कर सकती थी. विधवा विवाह, महिलाओं का उपनयन संस्कार, नियोग गन्धर्व और अंतर्जातीय विवाह प्रचलित था.
(29) महिलाएं पढ़ाई कर सकती थीं. ऋग्वेद में घोषा, अपाला, विश्वास जैसी विदुषी महिलाओं को वर्णन है.
(30) जीवन भर अविवाहित रहने वाली महिला को अमाजू कहा जाता था.
(31) आर्यों का मुख्य पेय सोमरस था. जो वनस्पति से बनाया जाता था.
(32) आर्य तीन तरह के कपड़ों का इस्तेमाल करते थे. (i) वास (ii) अधिवास (iii) उष्षणीय (iv) अंदर पहनने वाले कपड़ों को निवि कहा जाता था.
संगीत, रथदौड़, घुड़दौड़ आर्यों के मनोरंजन के साधन थे.
(33) आर्यों का मुख्य व्यवसाय खेती और पशुपालन था.
(34) गाय को न मारे जाने पशु की श्रेणी में रखा गया था.
(35) गाय की हत्या करने वाले या उसे घायल करने वाले के खिलाफ मृत्युदंड या देश निकाला की सजा थी.
ऋग्वैदिककालीन नदियां
(38) व्यापार के दूर-दूर जाने वाले व्यक्ति को पणि कहा जाता था.
(39) लेन-देन में वस्तु-विनिमय प्रणाली मौजूद थी.
(40) ऋण देकर ब्याज देने वाले को सूदखोर कहा जाता था.
(41) सभी नदियों में सरस्वती सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र नदी मानी जाती थी.
(42) उत्तरवैदिक काल में प्रजापति प्रिय देवता बन गए थे.
(43) उत्तरवैदिक काल में वर्ण व्यवसाय की बजाय जन्म के आधार पर निर्धारित होते थे.
(44) उत्तरवैदिक काल में हल को सीरा और हल रेखा को सीता कहा जाता था.
(45) उत्तरवैदिक काल में निष्क और शतमान मु्द्रा की इकाइयां थीं.
(46) सांख्य दर्शन भारत के सभी दर्शनों में सबसे पुराना था. इसके अनुसार मूल तत्व 25 हैं, जिनमें पहला तत्व प्रकृति है.
(47) सत्यमेव जयते, मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है.
(48) गायत्री मंत्र सविता नामक देवता को संबोधित है जिसका संबंध ऋग्वेद से है.
(49) उत्तर वैदिक काल में कौशांबी नगर में पहली बार पक्की ईंटों का इस्तेमाल हुआ था.
(50) महाकाव्य दो हैं- महाभारत और रामायण.
(51) महाभारत का पुराना नाम जयसंहिता है यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है
(5) आर्यों की प्रशासनिक इकाई इन पांच भागों में बंटी थी: (i) कुल (ii) ग्राम (iii) विश (iv) जन (iv) राष्ट्र.
(6) वैदिक काल में राजतंत्रात्मक प्रणाली प्रचलित थी.
(7) ग्राम के मुखिया ग्रामीणी और विश का प्रधान विशपति कहलाता था. जन के शासक को राजन कहा जाता था. राज्याधिकारियों में पुरोहित और सेनानी प्रमुख थे.
(8) शासन का प्रमुख राजा होता था. राजा वंशानुगत तो होता था लेकिन जनता उसे हटा सकती थी. वह क्षेत्र विशेष का नहीं बल्कि जन विशेष का प्रधान होता था.
(9) राजा युद्ध का नेतृत्वकर्ता था. उसे कर वसूलने का अधिकार नहीं था. जनता अपनी इच्छा से जो देती थी, राजा उसी से खर्च चलाता था.
(10) राजा का प्रशासनिक सहयोग पुरोहित और सेनानी 12 रत्निन करते थे. चारागाह के प्रधान को वाज्रपति और लड़ाकू दलों के प्रधान को ग्रामिणी कहा जाता था.
(11) 12 रत्निन इस प्रकार थे: पुरोहित- राजा का प्रमुख परामर्शदाता, सेनानी- सेना का प्रमुख, ग्रामीण- ग्राम का सैनिक पदाधिकारी, महिषी- राजा की पत्नी, सूत- राजा का सारथी, क्षत्रि- प्रतिहार, संग्रहित- कोषाध्यक्ष, भागदुध- कर एकत्र करने वाला अधिकारी, अक्षवाप- लेखाधिकारी, गोविकृत- वन का अधिकारी, पालागल- राजा का मित्र.
(12) पुरूप, दुर्गपति और स्पर्श, जनता की गतिविधियों को देखने वाले गुप्तचर होते थे.
(13) वाजपति-गोचर भूमि का अधिकारी होता था.
(14) उग्र-अपराधियों को पकड़ने का कार्य करता था.
(15) सभा और समिति राजा को सलाह देने वाली संस्था थी.
(16) सभा श्रेष्ठ और संभ्रात लोगों की संस्था थी, जबकि समिति सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी और विदथ सबसे प्राचीन संस्था थी. ऋग्वेद में सबसे ज्यादा विदथ का 122 बार जिक्र हुआ है.
(17) विदथ में स्त्री और पुरूष दोनों सम्मलित होते थे. नववधुओं का स्वागत, धार्मिक अनुष्ठान जैसे सामाजिक कार्य विदथ में होते थे.
(18) अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है. समिति का महत्वपूर्ण कार्य राजा का चुनाव करना था. समिति का प्रधान ईशान या पति कहलाता था.
(19) अलग-अलग क्षेत्रों के अलग-अलग विशेषज्ञ थे. होत्री- ऋग्वेद का पाठ करने वाला, उदगात्री- सामवेद की रिचाओं का गान करने वाला, अध्वर्यु- यजुर्वेद का पाठ करने वाला और रिवींध- संपूर्ण यज्ञों की देख-रेख करने वाला.
(20) युद्ध में कबीले का नेतृत्व राजा करता था, युद्ध के गविष्ठ शब्द का इस्तेमाल किया जाता था जिसका अर्थ होता है गायों की खोज.
(21) दसराज्ञ युद्ध का उल्लेख ऋग्वेद के सातवें मंडल में है, यह युद्ध रावी नदी के तट पर सुदास और दस जनों के बीच लड़ा गया था. जिसमें सुदास जीते थे.
(22) ऋग्वैदिक समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में विभाजित था. यह विभाजन व्यवसाय पर आधारित था. ऋग्वेद के 10वें मंडल में कहा गया है कि ब्राह्मण परम पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उनकी भुजाओं से, वैश्य उनकी जांघों से और शुद्र उनके पैरों से उत्पन्न हुए हैं.
प्रमुख दर्शन एवं उसके प्रवर्तक
दर्शन
|
प्रवर्तक
|
चार्वाक
|
चार्वाक
|
योग
|
पतंजलि
|
सांख्य
|
कपिल
|
न्याय
|
गौतम
|
पूर्वमीमांसा
|
जैमिनी
|
उत्तरमीमांसा
|
बादरायण
|
वैशेषिक
|
कणाक या उलूम
|
(23) एक और वर्ग ' पणियों ' का था जो धनि थे और व्यापार करते थे.
(24) भिखारियों और कृषि दासों का अस्तित्व नहीं था. संपत्ति की इकाई गाय थी जो विनिमय का माध्यम भी थी. सारथी और बढ़ई समुदाय को विशेष सम्मान प्राप्त था.(25) आर्यों का समाज पितृप्रधान था. समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार थी जिसका मुखिया पिता होता था जिसे कुलप कहते थे.
(26) महिलाएं इस काल में अपने पति के साथ यज्ञ कार्य में भाग लेती थीं.
(27) बाल विवाह और पर्दाप्रथा का प्रचलन इस काल में नहीं था.
(28) विधवा अपने पति के छोटे भाई से विवाह कर सकती थी. विधवा विवाह, महिलाओं का उपनयन संस्कार, नियोग गन्धर्व और अंतर्जातीय विवाह प्रचलित था.
(29) महिलाएं पढ़ाई कर सकती थीं. ऋग्वेद में घोषा, अपाला, विश्वास जैसी विदुषी महिलाओं को वर्णन है.
(30) जीवन भर अविवाहित रहने वाली महिला को अमाजू कहा जाता था.
(31) आर्यों का मुख्य पेय सोमरस था. जो वनस्पति से बनाया जाता था.
(32) आर्य तीन तरह के कपड़ों का इस्तेमाल करते थे. (i) वास (ii) अधिवास (iii) उष्षणीय (iv) अंदर पहनने वाले कपड़ों को निवि कहा जाता था.
संगीत, रथदौड़, घुड़दौड़ आर्यों के मनोरंजन के साधन थे.
(33) आर्यों का मुख्य व्यवसाय खेती और पशुपालन था.
(34) गाय को न मारे जाने पशु की श्रेणी में रखा गया था.
(35) गाय की हत्या करने वाले या उसे घायल करने वाले के खिलाफ मृत्युदंड या देश निकाला की सजा थी.
ऋग्वैदिककालीन नदियां
प्राचीन नाम
|
आधुनिक नाम
|
क्रुभ
|
कुर्रम
|
कुभा
|
काबुल
|
वितस्ता
|
झेलम
|
आस्किनी
|
चिनाव
|
परुषणी
|
रावी
|
शतुद्रि
|
सतलज
|
विपाशा
|
व्यास
|
सदानीरा
|
गंडक
|
दृसद्धती
|
घग्घर
|
गोमल
|
गोमती
|
सुवस्तु
|
स्वात्
|
(36) आर्यों का प्रिय पशु घोड़ा और प्रिय देवता इंद्र थे.
(37) आर्यों द्वारा खोजी गई धातु लोहा थी.(38) व्यापार के दूर-दूर जाने वाले व्यक्ति को पणि कहा जाता था.
(39) लेन-देन में वस्तु-विनिमय प्रणाली मौजूद थी.
(40) ऋण देकर ब्याज देने वाले को सूदखोर कहा जाता था.
(41) सभी नदियों में सरस्वती सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र नदी मानी जाती थी.
(42) उत्तरवैदिक काल में प्रजापति प्रिय देवता बन गए थे.
(43) उत्तरवैदिक काल में वर्ण व्यवसाय की बजाय जन्म के आधार पर निर्धारित होते थे.
(44) उत्तरवैदिक काल में हल को सीरा और हल रेखा को सीता कहा जाता था.
(45) उत्तरवैदिक काल में निष्क और शतमान मु्द्रा की इकाइयां थीं.
(46) सांख्य दर्शन भारत के सभी दर्शनों में सबसे पुराना था. इसके अनुसार मूल तत्व 25 हैं, जिनमें पहला तत्व प्रकृति है.
(47) सत्यमेव जयते, मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है.
(48) गायत्री मंत्र सविता नामक देवता को संबोधित है जिसका संबंध ऋग्वेद से है.
(49) उत्तर वैदिक काल में कौशांबी नगर में पहली बार पक्की ईंटों का इस्तेमाल हुआ था.
(50) महाकाव्य दो हैं- महाभारत और रामायण.
(51) महाभारत का पुराना नाम जयसंहिता है यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है
३.
भगवान गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, ईसा पूर्व 7 वीं और शुरूआती 6 वीं शताब्दि के दौरान सोलह बड़ी शक्तियां (महाजनपद) विद्यमान थे। अति महत्वपूर्ण गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य और वैशाली के लिच्छवी गणराज्य थे। गणराज्यों के अलावा राजतंत्रीय राज्य भी थे, जिनमें से कौशाम्बी (वत्स), मगध, कोशल, और अवन्ति महत्वपूर्ण थे। इन राज्यों का शासन ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों के पास था, जिन्होंने राज्य विस्तार और पड़ोसी राज्यों को अपने में मिलाने की नीति अपना रखी थी। तथापि गणराज्यात्मक राज्यों के तब भी स्पष्ट संकेत थे जब राजाओं के अधीन राज्यों का विस्तार हो रहा था।
बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 560 में हुआ और उनका देहान्त ईसा पूर्व 480 में 80 वर्ष की आयु में हुआ। उनका जन्म स्थान नेपाल में हिमालय पर्वत श्रंखला के पलपा गिरि की तलहटी में बसे कपिलवस्तु नगर का लुम्बिनी नामक निकुंज था। बुद्ध, जिनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था, ने बुद्ध धर्म की स्थापना की जो पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में एक महान संस्कृति के रूप में विकसित हुआ।
पाँचवी शताब्दी ई. में फ़ाह्यान भारत आया तो उसने भिक्षुओं से भरे हुए अनेक विहार देखे। सातवीं शताब्दी में हुएन-सांग ने भी यहाँ अनेक विहारों को देखा। इन दोनों चीनी यात्रियों ने अपनी यात्रा में यहाँ का वर्णन किया है। "पीतू" देश से होता हुआ चीनी यात्री फ़ाह्यान 80 योजन चलकर मताउला [9]मथुरा) जनपद पहुँचा था। इस समय यहाँ बौद्ध धर्म अपने विकास की चरम सीमा पर था। उसने लिखा है कि यहाँ 20 से भी अधिक संघाराम थे, जिनमें लगभग तीन सहस्र से अधिक भिक्षु रहा करते थे।[10] यहाँ के निवासी अत्यंत श्रद्धालु और साधुओं का आदर करने वाले थे। राजा भिक्षा (भेंट) देते समय अपने मुकुट उतार लिया करते थे और अपने परिजन तथा अमात्यों के साथ अपने हाथों से दान करते (देते) थे। यहाँ अपने-आपसी झगड़ों को स्वयं तय किया जाता था; किसी न्यायाधीश या क़ानून की शरण नहीं लेनी पड़ती थीं। नागरिक राजा की भूमि को जोतते थे तथा उपज का कुछ भाग राजकोष में देते थे। मथुरा की जलवायु शीतोष्ण थी। नागरिक सुखी थे। राजा प्राणदंड नहीं देता था, शारीरिक दंड भी नहीं दिया जाता था। अपराधी को अवस्थानुसार उत्तर या मध्यम अर्थदंड दिया जाता था (जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फ़ाह्यान, पृ 43)। अपराधों की पुनरावृत्ति होने पर दाहिना हाथ काट दिया जाता था। फ़ाह्यान लिखता हैं कि पूरे राज्य में चांडालों को छोड़कर कोई निवासी जीव-हिंसा नहीं करता था। मद्यपान नहीं किया जाता था और न ही लहसुन-प्याज का सेवन किया जाता था। चांडाल (दस्यु) नगर के बाहर निवास करते थे। क्रय-विक्रय में सिक्कों एवं कौड़ियों का प्रचलन था (जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फ़ाह्यान, पृ 43)। बौद्ध ग्रंथों में शूरसेन के शासक अवंति पुत्र की चर्चा है, जो उज्जयिनी के राजवंश से संबंधित था। इस शासक ने बुद्ध के एक शिष्य महाकाच्यायन से ब्राह्मण धर्म पर वाद-विवाद भी किया था।[11]भगवान् बुद्ध शूरसेन जनपद में एक बार मथुरा गए थे, जहाँ आनंद ने उन्हें उरुमुंड पर्वत पर स्थित गहरे नीले रंग का एक हरा-भरा वन दिखलाया था।[12] मिलिन्दपन्ह[13] में इसका वर्णन भारत के प्रसिद्ध स्थानों में हुआ है। इसी ग्रंथ में प्रसिद्ध नगरों एवम् उनके निवासियों के नाम के एक प्रसंग में माधुर का (मथुरा के निवासी का भी उल्लेख मिलता है[14] जिससे ज्ञात होता है कि राजा मिलिंद (मिनांडर) के समय (150 ई. पू.) मथुरा नगर पालि परंपरा में एक प्रतिष्ठित नगर के रूप में विख्यात हो चुका था।
४.
सिकन्दर (Sikandar ):-
सिकंदर का जन्म 20 जुलाई 356 ईसा-पूर्व को पेलामेसेडाॅन युनान में हुआ था। वह मेसेडोनिया का ग्रीक प्रशासक था। इतिहास में सिकंदर सबसे कुशल और यशस्वी सेनापति माना गया। अपनी मृत्यु तक सिकन्दर उस तमाम भूमि को जीत चुका था जिसकी जानकारी प्राचीन ग्रीक लोगों को थी। इसलिए उसे विश्वविजेता भी कहा जाता है। सिकंदर के पिता का नाम फिलीप द्वितीय और माता का नाम ओलंपियाज था।
सिकंदर ने अपने कार्यकाल में ईरान, सिरिया, मिस्त्र, मेसोपोटामिया, फिनिशिया, जुदेया, गाजा, बेक्ट्रीया और भारत में पंजाब तक के प्रदेशों पर विजय हासिल की थी। सिकंदर ने सबसे पहले ग्रीक राज्यों को जीता और फिर एशिया, म्यांमार आधुनिक तुर्की की तरफ बडा।
उस क्षेत्र पर उस समय फारस का शासन था। फारसी साम्राज्य मिस्त्र से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक फैला था। फारस के शहदारा तृतीय को तीन अलग-अलग युद्धों में पराजित किया। हांलाकि उसकी तथाकथित विश्वविजय फारस विजय से अधिक नहीं थी। उसे शहदारा के अलावा अन्य स्थानीय प्रोतापाले से भी युद्ध करना पडा था। मिस्त्र, बेकट्रिया तथा आधुनिक तजाकिस्तान में स्थानीय प्रतिरोध का सामना करना पडा था।
भारत में सिकंदर का पुरू से युद्ध हुआ, जिसमें पुरू की हार हुई। भारत पर सिकंदर के आक्रमण के समय चाणक्य तक्षिला में अध्यापक थे। तक्षिला और गांधार के राजा आमीन ने सिकंदर से समझौता कर लिया। चाणक्य ने भारत की संस्कृति को बचाने के लिए सभी राजाओं से आग्रह किया किन्तु सिकंदर से लडने कोई नहीं आया।
पूरू ने सिकंदर से युद्ध किया था किन्तु हार गया। मगध के राजा महापदमानन्द ने चाणक्य का साथ देने से मना कर दिया और चाणक्य का अपमान भी किया। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को साथ लेकर एक नये साम्राज्य की स्थापना की और सिकन्दर द्वारा जीते गये राज्य पंजाब के राजदूत सेक्युकस को हराया।
सिकंदर के आक्रमण के समय सिंधु नदी घाटी के नीचले भाग में विशिविगण के पडोस में रहने वाले एक गण का नाम अगल रसाई था, सिकंदर जब सिंधू नदी के मार्ग से भारत में वापस लौट रहा था तो इस घर के लोगो से उसका मुकाबला हुआ। अगल रसोई लोगों ने सिकंदर से जमकर लोहा लिया, उनके तीर से सिकंदर घायल भी हो गया।
लेकिन अन्त में विजय सिकंदर की ही हुई। उसने मसक दूर्ग पर अधिकार कर लिया। और भयंकर नरसंहार के बाद अगल रसोई लोगों का दमन कर दिया। भारतीय सैन्य बल अपने परम रूप में राजा पोरस की सेना में दिखाई दिये जो सिकंदर का सबसे शक्तिशाली शत्रु था।
उसने अर्यन के अनुमान के अनुसार 30,000 पैदल सिपाहीयों, 4,000 घुड सवारों, 300 रथों और 200 हाथियों की सेना लेकर सिकंदर का मुकाबला किया। उसकी पराजय के बाद भी सिकंदर को उसकी तरफ मैत्री का हाथ बढ़ाना पड़ा।
अगल रसोई जाति के लोगों ने 40,000 पैदल सिपाहीयों और 3000 घुड सवारों की सेना लेकर सिकंदर से टक्कर ली। कहा जाता है कि उनके एक नगर के 20,000 निवासीयों ने अपने आपको बंदियों के रूप् में शत्रुओ के हाथों में समर्पित करने के बजाय बाल बच्चों सहित आग में कूद कर प्राण दे देना ही उचित समझा।
सिकंदर को कई स्वायत्त जातियों के संघ के संगठित विरोध का सामना करना पडा जिनमें मालव तथां शूद्रक आदि जातियां थी। जिसकी संयुक्त सेना में 90,000 पैदल सिपाही 10,000 घुड सवार और 900 से अधिक रथ थे। उनके ब्राम्हणों ने भी पढने लिखने का काम छोडकर तलवार संभाली और रण क्षेत्र में लडते हुए मारे गये। बहुत ही कम लोग बंदी बनाये जा सके।
325 ई.पू में सिकंदर भारत की भूमि छोडकर बेबीलोन चला गया। तैतीस साल की उम्र में बेबीलोन में उसकी मृत्यु हो गयी। सिकन्दर इतिहास में Alexander third, Alexander the great, और Alexander the great empire के नाम से भी जाना जाता है।
५.
मौर्य साम्राज्य (Morya Samrajya) :-
मौर्य साम्राज्य की अवधि (ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 185 तक) ने भारतीय इतिहास में एक युग का सूत्रपात किया। कहा जाता है कि यह वह अवधि थी जब कालक्रम स्पष्ट हुआ। यह वह समय था जब, राजनीति, कला, और वाणिज्य ने भारत को एक स्वर्णिम ऊंचाई पर पहुंचा दिया। यह खंडों में विभाजित राज्यों के एकीकरण का समय था। इससे भी आगे इस अवधि के दौरान बाहरी दुनिया के साथ प्रभावशाली ढंग से भारत के संपर्क स्थापित हुए।
मौर्य साम्राज्य की अवधि (ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 185 तक) ने भारतीय इतिहास में एक युग का सूत्रपात किया। कहा जाता है कि यह वह अवधि थी जब कालक्रम स्पष्ट हुआ। यह वह समय था जब, राजनीति, कला, और वाणिज्य ने भारत को एक स्वर्णिम ऊंचाई पर पहुंचा दिया। यह खंडों में विभाजित राज्यों के एकीकरण का समय था। इससे भी आगे इस अवधि के दौरान बाहरी दुनिया के साथ प्रभावशाली ढंग से भारत के संपर्क स्थापित हुए।
सिकन्दर की मृत्यु के बाद उत्पन्न भ्रम की स्थिति ने राज्यों को यूनानियों की दासता से मुक्त कराने और इस प्रकार पंजाब व सिंध प्रांतों पर कब्जा करने का चन्द्रगुप्त को अवसर प्रदान किया।
मौर्य राजवंश प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली एवं महान राजवंश था। इसने 137 वर्ष भारत में राज किया। इसकी स्थापना का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके मन्त्री आचार्य चाणक्य को दिया जाता है, जिन्होंने नंदवंश के सम्राट घनानन्द को पराजित किया। यह साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों से शुरू हुआ। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (अब का पटना) थी। मोर्य साम्राज्य 52 लाख वर्गकिलोमीटर तक फैला था।
मौर्य राजवंश प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली एवं महान राजवंश था। इसने 137 वर्ष भारत में राज किया। इसकी स्थापना का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके मन्त्री आचार्य चाणक्य को दिया जाता है, जिन्होंने नंदवंश के सम्राट घनानन्द को पराजित किया। यह साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों से शुरू हुआ। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (अब का पटना) थी। मोर्य साम्राज्य 52 लाख वर्गकिलोमीटर तक फैला था।
325 ईसापूर्व में उत्तर पश्चिमी भारत (आज के पाकिस्तान का लगभग सम्पूर्ण इलाका) सिकन्दर के क्षत्रपों का शासन था। जब सिकन्दर पंजाब पर चढ़ाई कर रहा था तो एक ब्राह्मण जिसका नाम चाणक्य था (कौटिल्य नाम से भी जाना गया तथा वास्तविक नाम विष्णुगुप्त) मगध को साम्राज्य विस्तार के लिए प्रोत्साहित करने आया। उस समय मगध अच्छा खासा शक्तिशाली था तथा उसके पड़ोसी राज्यों की आंखों का काँटा। पर तत्कालीन मगध के सम्राट घनानन्द ने उसको ठुकरा दिया। उसने कहा कि तुम एक पंडित हो और अपनी चोटी का ही ध्यान रखो “युद्ध करना राजा का काम है तुम पंडित हो सिर्फ पंडिताई करो” तभी से चाणक्य ने प्रतिज्ञा लिया की धनानंद को सबक सिखा के रहेगा।
मौर्य प्राचीन क्षत्रिय कबीले के हिस्से रहे है। प्राचीन भारत छोटे -छोटे गणों में विभक्त था। उस वक्त कुछ ही प्रमुख शासक जातिया थी जिसमे शाक्य, मौर्य का प्रभाव ज्यादा था। चन्द्रगुप्त उसी गण प्रमुख का पुत्र था जो की चन्द्रगुप्त के बाल अवस्था में ही योद्धा के रूप में मारा गया। चन्द्रगुप्त में राजा बनने के स्वाभाविक गुण थे ‘इसी योग्यता को देखते हुए चाणक्य ने उसे अपना शिष्य बना लिया, एवं एक सबल राष्ट्र की नीव डाली जो की आज तक एक आदर्श है।
इसके बाद भारत भर में जासूसों (गुप्तचर) का एक जाल सा बिछा दिया गया जिससे राजा के खिलाफ गद्दारी इत्यादि की गुप्त सूचना एकत्र करने में किया जाता था – यह भारत में शायद अभूतपूर्व था। एक बार ऐसा हो जाने के बाद उसने चन्द्रगुप्त को यूनानी क्षत्रपों को मार भगाने के लिए तैयार किया। इस कार्य में उसे गुप्तचरों के विस्तृत जाल से मदद मिली। मगध के आक्रमण में चाणक्य ने मगध में गृहयुद्ध को उकसाया। उसके गुप्तचरों ने नन्द के अधिकारियों को रिश्वत देकर उन्हे अपने पक्ष में कर लिया। इसके बाद नन्द शासक ने अपना पद छोड़ दिया और चाणक्य को विजयश्री प्राप्त हुई। नन्द को निर्वासित जीवन जीना पड़ा जिसके बाद उसका क्या हुआ ये अज्ञात है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जनता का विश्वास भी जीता और इसके साथ उसको सत्ता का अधिकार भी मिला।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने 322 ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की और तेजी से पश्चिम की तरफ़ अपने साम्राज्य का विकास किया। उसने कई छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्यों के आपसी मतभेदों का फ़ायदा उठाया, जो सिकन्दर के आक्रमण के बाद पैदा हो गये थे। उसने यूनानियों को मार भगाया। चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा बुरी तरह पराजित होने के पश्चात सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस को अपनी कन्या का विवाह चंद्रगुप्त से करना पड़ा। मेगस्थनीज इसी के दरबार में आया था। चंद्रगुप्त की माता का नाम ‘मुरा’ था। इसी से यह वंश ‘मौर्य वंश’ कहलाया।
316 ईसा पूर्व तक मौर्य वंश ने पूरे उत्तरी पश्चिमी भारत पर अधिकार किया था। चंद्रगुप्त के बाद उसके पुत्र बिन्दुसार ने 298 ई.पू. से 273 ई. पू. तक राज्य किया। बिन्दुसार के बाद उसका पुत्र अशोक 273 ई.पू. से 232 ई.पू. तक गद्दी पर रहा। अशोक के समय में कलिंग का भारी नरसंहार हुआ, जिससे द्रवित होकर उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। 316 ईसा पूर्व तक मौर्य वंश ने पूरे उत्तरी-पश्चिमी भारत पर अधिकार कर लिया था। अशोक के राज्य में मौर्य वंश का बेहद विस्तार हुआ। सम्राट अशोक के कारण ही मौर्या साम्राज्य सबसे महान और शक्तिशाली बनकर विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ।
मोर्य शासकों की सूची –
क्र.सं. | शासक | शासन काल |
1 | चन्द्रगुप्त मौर्य | 322 ईसा पूर्व- 298 ईसा पूर्व |
2 | बिन्दुसार | 298 ईसा पूर्व -272 ईसा पूर्व |
3 | अशोक | 273 ईसा पूर्व -232 ईसा पूर्व |
4 | दशरथ मौर्य | 232 ईसा पूर्व- 224 ईसा पूर्व |
5 | सम्प्रति | 224 ईसा पूर्व- 215 ईसा पूर्व |
6 | शालिसुक | 215 ईसा पूर्व- 202 ईसा पूर्व |
7 | देववर्मन | 202 ईसा पूर्व -195 ईसा पूर्व |
8 | शतधन्वन मौर्य | 195 ईसा पूर्व 187 ईसा पूर्व |
9 | बृहद्रथ मौर्य | 187 ईसा पूर्व- 185 ईसा पूर्व |
मौर्य साम्राज्य का अंत
अशोक के उत्तराधिकारी कमज़ोर शासक हुए, जिससे प्रान्तों को अपनी स्वतंत्रता का दावा करने का साहस हुआ। इतने बड़े साम्राज्य का प्रशासन चलाने के कठिन कार्य का संपादन कमज़ोर शासकों द्वारा नहीं हो सका। उत्तराधिकारियों के बीच आपसी लड़ाइयों ने भी मौर्य साम्राज्य के अवनति में योगदान किया।185 ई.पू. में उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने उसकी हत्या कर डाली और शुंग वंश नाम का एक नया राजवंश आरंभ हुआ
ईसवी सन् की प्रथम शताब्दि के प्रारम्भ में कुशाणों ने भारत के उत्तर पश्चिम मोर्चे में अपना साम्राज्य स्थापित किया। कुशाण सम्राटों में सबसे अधिक प्रसिद्ध सम्राट कनिष्क (125 ई. से 162 ई. तक), जो कि कुशाण साम्राज्य का तीसरा सम्राट था। कुशाण शासन ईस्वी की तीसरी शताब्दि के मध्य तक चला। इस साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ कला के गांधार घराने का विकास व बुद्ध मत का आगे एशिया के सुदूर क्षेत्रों में विस्तार करना रही।
६.गुप्त साम्राज्य (Gupt Samrajya ):-
गुप्त वंश (Gupta Dynasty) का शासन भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल कहा जाता है | गुप्त वंश (Gupta Dynasty) का प्रारम्भ 240 ईस्वी में पहले शासक श्रीगुप्त से हुआ था | इस वंश का अंतिम शासक बुद्धगुप्त ने 495 ईस्वी तक राज किया | उसके उत्तराधिकारी 7वी सदी तक राज करते रहे परन्तु पूर्णतया सिमित और शक्तिहीन रहे | इस वंश में चन्द्रगुप्त प्रथम ,समुद्रगुप्त , चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य एवं स्कंदगुप्त जैसे प्रतापी सम्राट हुए | इस वंश का समुद्र गुप्त एक महान वीर हुआ है जिसने अपनी तलवार से सारे गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया | जिसका परिचय हमे प्रयाग प्रशस्ति के शिलालेख में मिलता है |
चद्रगुप्त विक्रमादित्य एक महान सम्राट हुआ जिसके काल में भारत में विद्या , शिक्षा ,संस्कृति ,विज्ञान ,कला एवं निर्माण कला में अभुतुपुर्व प्रगति की | धनधान्य से भरपूर यह देश सोने की चिड़िया कहा जाने लगा | उसके समय में आये चीनी यात्री फाह्यान ने भारत की प्रसशा करते हुए इसकी राजधानी पाटलीपुत्र को दुनिया का श्रेष्ठतम नगर बताया |पांचवी सदी में मध्य एशिया से आये हुण आक्रमणकारियों का गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त ने डटकर सामना किया |उन्हें अनेक बार हराया लेकिन बाद में निर्बल उत्तराधिकारियों के समय में हुन नेता तोरमाण ने अधिकाँश गुप्त साम्राज्य पर कब्जा कर लिया | दुसरे हुन शासक मिहिर कुल के पश्चात तो हुण भी कमजोर तो हो गये तो देश में पुन: अराजकता फ़ैल गयी | तब देश में पुन: केन्द्रीय सत्ता का निर्माण मौखरी वंश ने किया | आइये गुप्त वंश के राजाओ के बारे में आपको विस्तार से बताते है |
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